Wednesday, April 8, 2020

ब्रह्मास्त्र - by Vinay Jha

ब्रह्मास्त्र —

स्वशाखा के वेद का ही पाठ करना चाहिए । स्वशाखा अर्थात् स्व−अध्याय का दैनिक अध्ययन ही स्वाध्याय है ।
जबतक स्वशाखा पूरा न सीख लें तबतक वेद की अन्य किसी शाखा का अध्ययन परम्परा नहीं है । पाणिनीय व्याकरण की वैदिकी प्रक्रिया में वेद के सामान्य नियम हैं । शाखाविशेष के विशिष्ट नियम उस शाखा के प्रातिशाख्य में मिलेंगे । सामवेद और यजुर्वेद की किसी शाखा का कोई प्रातिशाख्य मुझे आजतक नहीं मिला (कौथुमी प्रातिशाख्य दो खण्डों में नयी दिल्ली इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र में है),मैंने शाकल ऋग्वेद और माध्यन्दिन वाजसनेयी शुक्ल यजुर्वेद के प्रातिशाख्यों का अध्ययन किया है,ये दोनों प्रकाशित और सुलभ हैं ।
मेरी शाखा है माध्यन्दिन वाजसनेयी शुक्ल यजुर्वेद,किन्तु सभी वैदिकों को शाकल ऋग्वेदीय प्रातिशाख्य का अध्ययन करना ही चाहिए क्योंकि उसमें उच्चारण के उन सामान्य नियमों का विस्तार से वर्णन है जो प्राचीन से लेकर आधुनिक काल तक के संसार के किसी ग्रन्थ में उल्लेख नहीं है ।
जैसे कि “ऋ” का सही उच्चारण । आजकल दक्षिण भारत में “ऋ” को रु उच्चारित करते हैं और उत्तर भारत में रि — दोनों गलत हैं । “ऋ” का सही उच्चारण ऋग्वेदीय प्रातिशाख्य में वर्णित है —- सम्पूर्ण “ऋ” के कुल उच्चारण−काल का चौथाई हिस्सा आरम्भ में संक्षिप्त “अ” है,ऐसा ही “अ” अन्तिम चौथाई काल में है,और बीच में आधा समय “र” है । वेदपाठ में उच्चारण अशुद्ध होने से फल नष्ट होता है ।
किन्तु पूरे भारत में मुझे एक भी वैदिक नहीं मिला जिसने कभी किसी प्रातिशाख्य का अध्ययन किया हो । वे लोग बाल्यावस्था में याज्ञवल्क्य−शिक्षा पढ़ते हैं जिसके पश्चात कोई प्रातिशाख्य कभी नहीं छूते । याज्ञवल्क्य−शिक्षा गुरुकुल के ब्रह्मचारी बटुकों के लिये है किन्तु उसमें भी किसी कमीने ने अश्लील बाते जोड़ दी हैं जो ब्रह्मचारी को पढ़ाना पाप है । ऐसे प्रक्षिप्त अंशों को छोड़ दें तो याज्ञवल्क्य−शिक्षा वेदपाठ सीखने के लिये उत्कृष्ट ग्रन्थ है और वेदाङ्ग में सम्मिलित “शिक्षा” है ।
किसी भी वैदिक शिक्षा−ग्रन्थ अथवा प्रातिशाख्य अथवा व्याकरण में गायत्री के “वरेण्यम्” को “वरेणियम्” पढ़ने का आदेश नहीं है । गायत्री के सहस्रों भेद हैं,उनमें से किसी किसी पाठ में गुरु−परम्परा द्वारा “वरेणियम्” पढ़ने का आदेश है जो उस परम्परा के शिष्यों को मानना चाहिए किन्तु उसे सबके लिए सामान्य नियम नहीं बनाना चाहिए । सन्ध्यावन्दन का आवश्यक अङ्ग गायत्री−जप को माना जाता है क्योंकि गायत्री तीनों वेदों में है जिस कारण गायत्री का दैनिक जप करने से स्वाध्याय का पालन हो जाता है । माध्यन्दिन वाजसनेयी शुक्ल यजुर्वेद के ब्राह्मण−ग्रन्थ “शतपथ ब्राह्मण” का आदेश है कि नियमित स्वाध्याय कर्तव्य है जिसका त्याग केवल अनाध्याय के दिन ही किया जाना चाहिए । अनाध्याय−काल में वेदपाठ वर्जित है,उसका नियम मुहूर्त−चिन्तामणि में मिलेगा ।
वेद के दो भाग हैं — संहिता और ब्राह्मण । आजकल जिन ग्रन्थों को ऋग्वेद,यजुर्वेद,आदि कहा जाता है वे वस्तुतः वेद न होकर संहिता हैं,जैसे कि ऋक्−संहिता । ऋक्−संहिता में ऋचायें हैं,यजुर्वेद नाम से प्रसिद्ध संहिता में यजुः होते हैं,सामवेद नाम की संहिता में साम हैं । गायत्री इन तीनों में हैं किन्तु वर्तनी (स्पेल्लिंग) समान होने पर भी पाठ के नियमों में अन्तर है । अतः गायत्री−ऋचा,गायत्री−यजुः और गायत्री−साम में परस्पर अन्तर है और इनमें भी सहस्रों प्रकार के शाखाभेद हैं । वेद लिखा नहीं जा सकता,वेद श्रुति है जिसे केवल गुरुमुख द्वारा ही सीखा जा सकता है । वेद नाम के प्रकाशित पुस्तकों में वेद का प्राणहीन अस्थिपञ्जर मिलेगा ।
संहिता और उसके ब्राह्मणग्रन्थ को मिलाकर “वेद” कहते हैं । अंग्रेजों ने केवल संहिता को ही वेद कहा और उसमें भी केवल ऋग्वेद को मान्यता दी,जबकि सारी संहितायें एकसाथ यज्ञों में प्रयुक्त होती हैं और यज्ञ का मुख्य वेद ऋग्वेद नहीं वरन् यजुर्वेद है जो आज भी आर्यावर्त के ९५% आर्यों का वेद है । गैर−ब्राह्मण आर्यों का वेद उनके कुलब्राह्मणों का वेद होता है ।
उपरोक्त संहिता ग्रन्थ में वर्णित ऋचा वा यजुस् वा साम को उसी वेद की उसी शाखा के ब्राह्मण−ग्रन्थ में वर्णित विधि द्वारा जब व्यावहारिक प्रयोग हेतु उपयुक्त बनाया जाय तब उसे “मन्त्र” कहते हैं,क्योंकि तब उस मन्त्र में मन के संकल्प को कल्प द्वारा पूर्व में अनुपस्थित अपूर्व फल का उत्पादन करने की शक्ति आ जाती है ।
वैदिक यज्ञ को कल्प कहते हैं । समस्त वैदिक यज्ञों के विस्तृत वर्णन वाले साहित्य को भी कल्प कहते हैं जो वेदाङ्ग में सम्मिलित है । यज्ञ द्वारा जो नवीन फल उत्पन्न होता है उसे मीमांसा की शब्दावली में “अपूर्व” कहते हैं । मन का प्रमुख लक्षण है संकल्प करने की क्षमता । यह क्षमता चौरासी लाख योनियों में से केवल एक ही योनि में होती है,अतः जिस योनि का मन संकल्प करने में समर्थ हो उसे मनुष्य वा मानव कहते हैं । संकल्प सहित कार्य को ही “कर्म” कहा जाता है क्योंकि केवल ऐसा कार्य ही कर्मफल का उत्पादक है । पशु कर्म नहीं करता क्योंकि वह पूर्णतया प्रकृति के अधीन है,स्वेच्छा से संकल्प नहीं कर सकता । उदाहरणार्थ व्याघ्र घास नहीं खा सकता,अतः उसे हिंसा का दोष नहीं लगता । किन्तु मनुष्य को छूट है कि वह शाकाहार करे वा मांसाहार । अतः मनुष्य जैसा कर्म करने का संकल्प लेता है वैसे फल भी उसे भोगने पड़ते हैं । मनुष्ययोनि कर्मयोनि भी है और भोगयोनि भी,अन्य सारे जीव केवल भोगयोनि हैं,पाश में बद्ध होने के कारण पशु हैं ।
मनुष्य एकमात्र योनि है जिसमें शक् द्वारा कश् की लब्धि सम्भव है । शक् का अर्थ है शक्ति प्राप्त करना । कश् का अर्थ है किनारे लगना ।
भवसागर के पार लगकर जो किनारे के जल का पान करे उसे कहते हैं “कश्यप” जो मेरा गोत्र है । यह भौतिक जल नहीं है । इस अप् का फल है पा,अर्थात् पालन के हेतु पदार्थ का पान करना ।
शक्ति प्राप्त करने की विधि है वेद । कोई भी वेदमन्त्र किसी देव वा देवी को समर्पित नहीं हैं,सारे मन्त्र “देवता” को समर्पित हैं जो स्त्रीलिङ्ग है और जिसका अर्थ है दिव्य शक्ति । उदाहरणार्थ किसी सूक्त में इन्द्र नाम के देव की स्तुति है तो उस सूक्त के देवता हैं इन्द्र जिसका अर्थ यह है कि इन्द्र नाम के देव में अन्तर्निहित दिव्य शक्ति को वह सूक्त समर्पित है ।
वेद के दो भाग हैं । पूर्ववेद है कर्मकाण्ड और उत्तरवेद है ज्ञानकाण्ड । पूर्ववेद का वर्णन है पूर्वमीमांसा । उत्तरवेद का वर्णन है उत्तरमीमांसा जिसे वेदान्त वा ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं । किन्तु मीमांसा में केवल वर्णन है । वास्तविक वेद की पद्धति है उस शाखा का ब्राह्मण−ग्रन्थ जिसके ज्ञाता व्यक्ति को भी ब्राह्मण कहते हैं । ब्राह्मण को पूर्व और उत्तर दोनों का ज्ञान होना चाहिए । तभी वह यज्ञ में ब्रह्मा बन सकता है । यज्ञ में ब्रह्मा को मौन धारण करके समाधिस्थ रहना पड़ता है क्योंकि अथर्ववेद का पाठ वर्जित है,उसका केवल मानसिक पाठ ही होना चाहिए । अथर्ववेद संकल्पों का संग्रह है । आजकल लोग यज्ञों में मनमाने संकल्प करते हैं और किसी मूर्ख को यज्ञ में ब्रह्मा बना देते हैं,जबकि ब्रह्मा केवल चतुर्वेदी ब्राह्मण ही बन सकता है — जिसने चारों वेदों को विधिपूर्वक सीख और समझ लिया हो ।
इसी कारण शक्ति के दो भेद हैं । द्वितीय भेद है भवसागर के उस पार जाने की शक्ति,जिसके लिये है दक्षिणमार्गी वेदपाठ अर्थात् सामान्य पाठ जिसके द्वारा ज्ञानरूपी मोक्षकारक उत्तरवेद की प्राप्ति हो । प्रथम भेद है वाममार्गी विपरीत पाठ द्वारा संसारिक सिद्धियों की प्राप्ति । जैसे कि ब्रह्मास्त्र ।
कई लोगों ने ब्रह्मास्त्र की जिज्ञासा की है । वसिष्ठ ऋषि द्वारा रचित धनुर्वेद से सातों दिव्यास्त्रों का सम्पूर्ण अस्त्र−अध्याय संलग्न कर रहा हूँ जिसमें मन्त्र का सटीक वर्णन और सिद्धि से लेकर शरसन्धान का वर्णन है । किन्तु सम्पूर्ण सिद्धि की व्यावहारिक पद्धति किसी भी धनुर्वेद में नहीं मिलेगी क्योंकि गायत्री और उससे बनी सावित्री के ऋषि हैं विश्वामित्र । ब्रह्मास्त्र की सिद्धि हेतु एक बैठक में प्राणायामों की संख्या विश्वामित्र−स्मृति में मिलेगी — सोलह प्राणायाम,और हर प्राणायाम में सावित्री मन्त्र कितनी बार और कैसे पढ़ें यह मैंने एक पुराने लेख में लिखा है । सोलह में से आठ वाम नासिका से और आठ दक्षिण । सातों दिव्यास्त्रों में समानता यह है कि केवल सावित्री मन्त्र का ही उपयोग है,और सातों में मन्त्र का विपरीत अर्थात् वाममार्गी पाठ है । सातों दिव्यास्त्रों में अन्तर यह है कि विपरीत मन्त्रपाठ में अक्षरों के क्रम में अन्तर है और सिद्धि हेतु कुल मन्त्रों की संख्या में भी अन्तर है । ब्रह्मास्त्र की सिद्धि हेतु वसिष्ठ ऋषि ने कुल एक निखर्व जप की संख्या का आदेश दिया । कलियुगी पण्डितों ने “निखर्व” पर छ अतिरिक्त शून्य बिठा दिये ताकि कोई भी मनुष्य ब्रह्मास्त्र सिद्ध न कर सके और दो−तीन वर्ष की बजाय बीस−तीस लाख वर्ष लग जाय!वसिष्ठ ऋषि ने छ दिव्यास्त्रों के सावित्री मन्त्र के विशिष्ट विपरीत भेदों का स्पष्ट वर्णन किया जो कि संलग्न चित्र में मिलेगा,किन्तु किसी भी ग्रन्थ में ब्रह्मास्त्र के सावित्री मन्त्र का विस्तृत वर्णन नहीं मिलेगा,वसिष्ठ ऋषि ने भी केवल सङ्केत ही दिया जिसका सही अर्थ तभी लगेगा जब वैदिक छन्दशास्त्र का ज्ञान रहेगा ।
एक पुराने लेख में मैंने वर्णन किया था कि छन्द दो प्रकार के होते हैं — जाति और वृत्त । जाति में मात्राओं की गिनती होती है,वृत्त में अक्षरों की । दिव्यास्त्रों के मन्त्रों में वृत्त है क्योंकि गायत्री के समस्त भेदों में केवल वृत्त की ही मान्यता है । गायत्री छन्द में २४ अक्षर होते हैं,एक न्यून होने से निचृद्−गायत्री छन्द बनता है जिसमें ७−८−८ अक्षरों के तीन चरण वाला एक वृत्त होता है । ब्रह्मास्त्र वाले विपरीत पाठ में अन्तिम अक्षर से आरम्भ करते हुए ८−८−७ अक्षरों के तीन चरण होते हैं । दक्षिणमार्गी आक्षरिक गायत्री है —
तत् स वि तुः व रे ण्यम् ॥ भर् गो दे व स्य धी म हि ॥ धि यो यो नः प्र चो द यात् ॥
ब्रह्मास्त्र की गायत्री है —
यात् द चो प्र नः यो यो धि ॥ हि म धी स्य व दे गो भर् ॥ ण्यम् रे व तुः वि स तत् ॥
आजकल गायत्री में “ॐ आपो⋅⋅⋅⋅⋅⋅⋅⋅⋅” जोड़कर सावित्री का जप करने का प्रचलन है । किन्तु दिव्यास्त्रों में गायत्री में केवल आरम्भ में एक बार “ॐ” जोड़कर सावित्री बनती है । प्रयोगकाल में तान्त्रिक प्रक्षेपव्याहृति भी प्रयुक्त होती है जो ब्रह्मास्त्र के मन्त्र में छूट गया है क्योंकि ब्रह्मास्त्र के बारे में वसिष्ठ धनुर्वेद में कथन है कि यह गर्भसहित सबका नाश करता है;अतः शत्रु का नाम लेना आवश्यक नहीं । किन्तु वसिष्ठ धनुर्वेद में यह उल्लेख छूट गया है कि शत्रुविशेष का नाम लेकर केवल उसके विरुद्ध भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग सम्भव है,जैसा कि समुद्र के विरुद्ध श्रीराम करना चाहते थे अथवा महाभारत में अर्जुन और अश्वत्थामा ने किया । वैसी स्थिति में ब्रह्मास्त्र की प्रक्षेपव्याहृति है “अमुकशत्रूम् हन हन हूं फट्” (अमुक के स्थान पर शत्रु का नाम लें,जैसे कि मेरा,किन्तु तब ब्रह्मास्त्र वापस आपपर ही मुड़ जायगा क्योंकि मेरी कुण्डली में शत्रुहन्ता योग है ।)।
इतना बताने पर भी आप किसी भी दिव्यास्त्र की सिद्धि नहीं कर सकते क्योंकि देवगण कोई न कोई विघ्न डाल देंगे । कारण है दिव्यास्त्र हेतु पात्रता ।

Friday, March 13, 2020

रोगों के लिए अचूक घरेलु अध्यात्मिक एवं पारम्परिक उपाय

सभी प्रकार के रोगों के लिए अचूक घरेलु अध्यात्मिक एवं पारम्परिक उपाय!!!!!!!!

* राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥

भावार्थ:-यदि श्री रामजी की कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाए तो ये सब रोग नष्ट हो जाएँ। सद्गुरु रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो॥

हिन्दू-धर्म की सबसे बड़ी विशेषता इसकी आध्यात्मिक मान्यतायें—आस्थायें हैं। अध्यात्म ही हिन्दू-धर्म की आत्मा है। यह आध्यात्मिक मान्यताओं को अन्य मान्यताओं की अपेक्षा अधिक महत्व देता है। हिन्दू धर्म के अनुसार मनुष्य को अपनी सीमित चेतना का उपयोग उच्चस्तर, असीम आत्म-अस्तित्व तथा परमानन्द की प्राप्ति के लिए करना आवश्यक है। हिन्दू-धर्म समस्त ब्रह्माण्ड की आध्यात्मिक एकता को लेकर चलता है और उसका प्रयोग मानव-जीवन में करके उसे व्यापक एवं महान् बनाना है।

आज की दौड़ती भागती जिन्दगी में हर कोई किसी न किसी रोग से ग्रसित है तो मैंने सोचा कि आज मैं आपको रोग निवारण के कुछ ऐसे घरेलु अध्यात्मिक और पारंपरिक उपाय बताऊ जो आज भी इतने ही कारगर है जितने पुराने समय में थे. हालाकि कुछ लोग इसे अन्धविश्वास भी कह सकते है परन्तु इसको करने से कोई नुकसान भी नहीं है. इनको अगर अपने डाक्टरी इलाज के साथ कर लिया जाय तो इसमें बुराई ही क्या है।

जिस घर में जब कोई रोग आ जाता है तो उस रोगी के साथ साथ उस घर के सभी व्यक्ति भी मानसिक रूप से चिंता और आशांति का अनुभव करने लगते है , लेकिन कुछ छोटी छोटी बातो को ध्यान में रखकर हम हालत पर काबू पा सकते है , शीघ्र स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर सकते है

यदि आपके परिवार में कोई व्यक्ति बीमार है तो अगर संभव हो तो उसे सोमवार को डॉक्टर को दिखाएँ और उसकी दवा की पहली खुराक भगवान शिव को अर्पित करके कुछ राशी भी चड़ा दें और रोगी व्यक्ति के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की प्रार्थना करें , व्यक्ति के बहुत जल्दी ही ठीक हो जाने की सम्भावना बन जाती है ।

हर पूर्णिमा को किसी भी शिव मंदिर में भगवान भोलेनाथ से अपने परिवार को निरोग रखने की प्रार्थना रखें ,तत्पश्चात मंदिर में और गरीबों में कुछ ना कुछ फल,मिठाई और नगद दान अवश्य दें ।

रोगी व्यक्ति को मंगलवार और शनिवार किसी भी दिन हनुमान जी की मूर्ति से सिंदूर लेकर उसके माथे पर लगाने से उसका दिल मजबूत होता है और रोगी जल्दी स्वस्थ भी होता है ।

यदि कोई बीमार व्यक्ति प्रात: काल एक गिलास पानी लेकर पूर्व दिशा की ओर मुंह करके खड़े होकर एँ मन्त्र का 21 बार जाप करके पी जाय एवं ईश्वर से अपने रोग को दूर करने के लिए प्रार्थना करें तो शीघ्र ही स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है। यह प्रयोग सोमवार से शुरू करके रविवार तक लगातार 7 दिन तक करना चाहिए ।

अशोक के वृक्ष की ताजा तीन पत्तियों को प्रतिदिन प्रातः चबाने से चिंताओं से मुक्ति मिलती है और स्वास्थ्य भी उत्तम बना रहता है ।

यदि किसी बीमार व्यक्ति का रोग ठीक ना हो रहा हो तो उसके तकिये के नीचे सहदेई और पीपल की जड़ रखने से बीमारी जल्दी ठीक होती है ।

यदि किसी रोगी को मृत्युतुल्य पीड़ा हो रही हो , तो जौ के आटे ( बाजार में यह आसानी से उपलब्ध है ) में काले तिल और सरसों का तेल मिला कर रोटी बना कर रोगी के ऊपर से 7 बार उतार कर किसी भैंसे को खिलाएं त्वरित लाभ मिलता है ।

सूर्य जब भी मेष राशी में ( 13 से 15 अप्रैल ) में प्रवेश करें तो प्रात: काल नीम की ताजी कपोलें गुड़ व मसूर के साथ पीस कर खाने से वर्ष भर रोग दूर रहते है , यह घर के सभी छोटे बड़े व्यक्तियों को खाना चाहिए ।

यदि कोई व्यक्ति लम्बे समय से बीमार है तो उसे घर के दक्षिण पश्चिम कोने ( नैत्रत्य कोण ) के कमरे में दक्षिण दिशा में सर रखकर सुलाएं , उनकी दवाएं और जल कमरे के ईशान कोण में रखें । ध्यान रखें रोगी व्यक्ति अपनी दवाएं और अपना खाना पीना ईशान कोण अथवा पूर्व की तरफ मुंह करके ही खाएं ।

यदि घर का कोई व्यक्ति अधिक समय से बीमार हो तो उसके तकिये के नीचे मणिक्य रखने से वह जल्दी स्वस्थ होता है ।

सभी रोगों में पीपल की सेवा से बहुत लाभ प्राप्त होता है , रविवार को छोड़कर नियमित रूप से पीपल के वृक्ष पर प्रात: मीठा जल चड़ाकर उसकी जड़ जो छूकर अपने माथे से लगायें पुरुष पीपल की 7 परिक्रमा करें स्त्री ना करें और अपने रोग को दूर करने की प्रार्थना करें अति शीघ्र लाभ मिलता है ।

यदि आपके परिवार में कोई लम्बे समय से बीमार है तो आप प्रति माह कम से कम एक बार किसी भी अस्पताल में जाकर गरीबों में अपनी सामर्थ्यानुसार दवा एवं फलों का वितरण अवश्य करें, इससे रोगी को भी लाभ होगा और घर के अन्य सभी सदस्य भी निरोगी रहेंगे। यह बहुत ही चमत्कारी और सिद्ध प्रयोग है ।

यदि आप कभी किसी भी बीमार व्यक्ति को देखने जाएँ तो फूल और फल लेकर अवश्य जाएँ और यदि संभव हो तो कुछ ना कुछ नकद राशी भी अवश्य दें , इससे आपके परिवार का सदैव रोगों से बचाव होगा।

रोगी व्यक्ति को पान में गुलाब की सात पंखुडियां खिलाने से अगर उसको कोई नजर लगी है तो उससे छुटकारा मिलता है और दवा भी जल्दी असर करती है ।

यदि कोई व्यक्ति मरणासन्न अवस्था में हो उसके बचने की कोई आशा ना हो परन्तु उसके प्राण भी नहीं निकल रहें हो तो उसके हाथ से नमक का दान करवाना चाहिए ।

स्वस्थ शरीर के लिए एक रुपये का सिक्का लें। रात को उसे सिरहाने रख कर सो जाएं। प्रातः इसे शमशान की सीमा में फेंक आएं। शरीर स्वस्थ रहेगा।

यदि कोई व्यक्ति काफी समय से बीमार है तो एक नारियल से उसकी नज़र उतार कर उस नारियल को तंदूर/अंगीठी/हवनकुंड अथवा किसी तसले में आग जलाकर उसमें जलाने से रोगी अति शीघ्र स्वस्थ होने लगता है ।

सात जटा वाले नारियल शुक्ल पक्ष के सोमवार को ॐ नमा शिवाये मन्त्र का जाप करते हुए नदी में प्रवाहित करने से उस व्यक्ति के घर से रोग और दरिद्रता का नाश होता है ।

रोगी के पीने वाले जल में थोड़ा सा गंगाजल मिला दीजिये ,वह जब भी जल पिए उसे वह जल ही पीने को दिया जाय....... शीघ्र स्वास्थ्य लाभ मिलेगा ।

जिस व्यक्ति की तबियत ख़राब रहती है उसके पलंग की पाए में चाँदी के तार में एक गोमती चक्र बांध दें स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानी दूर होने लगेगी । ( गोमती चक्र को पहले गंगाजल में धोकर घर के मंदिर में रखकर तिलक लगाकर धुप/दीप/अगरबत्ती दिखाकर शुद्ध कर लें।)

एक देसी पान,गुलाब का फूल और ग्यारह बताशे बीमार व्यक्ति के ऊपर से 31 बार उतार कर किसी चौराहे पर रख दें ध्यान रहे कोई टोके नहीं ....व्यक्ति को शीघ्रता से स्वास्थ्य लाभ मिलने लगेगा ।

यदि कोई व्यक्ति तमाम इलाज के बाद भी बीमार रहता है तो पुष्य नक्षत्र में सहदेवी की जड़ उसके पास रखिये .....रोग दूर लगेगा ।

पीपल के वृक्ष को प्रातः 12 बजे के पहले, जल में थोड़ा दूध मिला कर सींचें और शाम को तेल का दीपक और अगरबत्ती जलाएं। ऐसा किसी भी वार से शुरू करके 7 दिन तक करें। बीमार व्यक्ति को आराम मिलना प्रारम्भ हो जायेगा।

किसी सिद्ध स्थान पर सूर्यास्त के पश्चात् तेल का दीपक जलाएं। अगरबत्ती जलाएं और बताशे रखें, फिर वापस मुड़ कर न देखें। बीमार व्यक्ति शीघ्र अच्छा हो जायेगा।

धोबी के घर से तुरंत धुलकर आये वस्त्रों को मन ही मन रोगी के अच्छे स्वास्थ्य की प्रार्थना करते हुए रोगी के शरीर से स्पर्श करा देने से बहुत जल्दी आराम मिलता है ।

हर माह के प्रथम सोमवार को सुबह सवेरे अपने ईष्ट देव का नाम लेते हुए थोड़ी सी पीली सरसों अपने सर पर से 7 बार घुमाकर घर से बाहर फ़ेंक दें .....रोग आपके पास भी नहीं आयेंगे ।

यदि घर में आपकी माता जी को निरंतर कोई रोग सता रहा है तो सोमवार के दिन 121 किसी भी साइज़ के पेड़े लेकर बच्चो और गरीबों में बाँट दें ......निश्चय ही रोग में आराम मिलेगा ।

अशोक के ताजे तीन पत्ते सुबह सुबह रोजाना बिना कुछ खाए चबाये जाएँ तो व्यक्ति शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ रहता है ....इसके सेवन से रोग और चिन्ताओं का भी नाश होता है।

सदैव ध्यान दें भैया दूज (यम दीतिया) के दिन बहन के घर उसके हाथ से बना भोजन करने से, गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु के घर/मंदिर से प्रसाद लेकर खाने से, बसंत पंचमी के दिन पत्नी के हाथ से बने पीले चावल खाने से एवं मात्र नवमी के दिन माँ के हाथ से बना भोजन करने से व्यक्ति निरोगी रहता है उसकी आयु में निसंदेह वृद्धि होती है।

स्वस्थ जीवन जीने के लिये रात्रि को अपने सिरहाने पानी किसी लोटे या गिलास में रख दें। सुबह उसे पी कर बर्तन को उल्टा रख दें तथा दिन में भी पानी पीने के बाद बर्तन को उल्टा रखने से व्यक्ति सदैव स्वस्थ बना रहता है।

बाजार से कपास के थोड़े से फूल खरीद लें। रविवार शाम 5 फूल, आधा गिलास पानी में साफ कर के भिगो दें। सोमवार को प्रात: उठ कर फूल को निकाल कर फेंक दें तथा बचे हुए पानी को पी जाएं। जिस पात्र में पानी पीएं, उसे कहीं पर भी उल्टा कर के रख दें। कुछ ही दिनों में आश्चर्यजनक स्वास्थ्य लाभ अनुभव करेंगे।

रात्रि के समय शयन कक्ष में कपूर जलाने से पितृ दोष का नाश होता है, घर में शांति बनी रहती है, बुरे स्वप्न नहीं आते है और सभी प्रकार के रोगों से भी छुटकारा मिलता है ।

पूर्णिमा के दिन रात्रि में घर में खीर बनाएं। ठंडी होने पर उसका मंदिर में मां लक्ष्मी को भोग लगाएं एवं चन्द्रमा और अपने पितरों का मन ही मन स्मरण करें और कुछ खीर काले कुत्तों को दे दें। ऐसा वर्ष भर पूर्णिमा में करते रहने से घर में सुख शांति, निरोगिता एवं हर्ष और उल्लास का वातावरण बना रहता है धन की कभी भी कमी नहीं रहती है ।

घर में कोई बीमार हो जाए तो उस रोगी को शहद में चन्दन मिला कर चटाएं |

यदि घर में पुत्र बीमार हो तो कन्याओं को हलवा खिलाएं एवं पीपल के पेड़ की लकड़ी को सिरहाने रखें।

जिस घर में स्त्रीवर्ग को निरन्तर स्वास्थ्य की पीड़ाएँ रहती हो, उस घर में तुलसी का पौधा लगाकर उसकी श्रद्धापूर्वक देखशल करने, संध्या के समय घी का दीपक जलाने से रोग पीड़ाएँ शीघ्र ही समाप्त होती है।

यदि घर में किसी की तबियत ज्यादा ख़राब लग रही है तो रविवार के दिन बूंदी के सवा किलो लड्डू किसी भी धार्मिक स्थान चड़ा कर उसका कम से कम 75% वहीँ पर प्रसाद के रूप में बांटे।

अगर परिवार में कोई परिवार में कोई व्यक्ति बीमार है तथा लगातार दवा सेवन के पश्चात् भी स्वास्थ्य लाभ नहीं हो रहा है, तो किसी भी रविवार से लगातार 3 दिन तक गेहूं के आटे का पेड़ा तथा एक लोटा पानी व्यक्ति के सिर के ऊपर से उसार कर जल को पौधे में डाल दें तथा पेड़ा गाय को खिला दें। इन 3 दिनों के अन्दर व्यक्ति अवश्य ही स्वस्थ महसूस करने लगेगा। अगर इस अवधि में रोगी ठीक हो जाता है, तो भी इस प्रयोग को अवश्य पूरा करना चाहिए।

पीपल के वृक्ष को प्रात: 12 बजे के पहले, जल में थोड़ा दूध मिला कर सींचें और शाम को तेल का दीपक और अगरबत्ती जलाएं। ऐसा किसी भी दिन से शुरू करके 7 दिन तक करें ( अगर सोमवार से शुरू करें तो अति उत्तम होगा )। रोग से ग्रस्त व्यक्ति को जल्दी ही आराम मिलना प्रारम्भ हो जायेगा।

शुक्रवार रात को मुठ्ठी भर काले साबुत चने भिगोयें। शनिवार की शाम उन्हें छानकर काले कपड़े में एक कील और एक काले कोयले के टुकड़े के साथ बांध दें । फिर इस पोटली को रोगी के ऊपर से 7 बार वार कर किसी तालाब या कुएं में फेंक दें। ऐसा लगातार 3 शनिवार करें। बीमार व्यक्ति शीघ्र अच्छा हो जायेगा|

यदि कोई प्राणी कहीं देर तक बैठा हो और उसके हाथ या पैर सुन्न हो जाएँ तो जो अंग सुन्न हो गया हो, उस पर उंगली से 27 का अंक लिख दीजिये, उसका सुन्न अंग तुरंत ठीक हो जाएगा।

काले तिल और जौ का आटा तेल में गूंथकर एक मोटी रोटी बनाकर उसे अच्छी तरह सेंकें। गुड को तेल में मिश्रित करके जिस व्यक्ति के मरने की आशंका हो, उसके सिर पर से 7 बार उतार कर मंगलवार या शनिवार को किसी भैंस को खिला दें।यह क्रिया करते समय ईश्वर से रोगी को शीघ्र स्वस्थ करने की प्रार्थना करते रहें।

गुड के गुलगुले सवाएं लेकर उसे 7 बार रोगी के सर से उतार कर मंगलवार या शनिवार व इतवार को चील-कौए को डाल दें, रोगी को तुरंत राहत मिलने लगती है।

Sunday, November 12, 2017

सभी देवी देवताओ ने भारत मे हि जन्म क्यो लिया?


आक्षेप - सभी देवी देवताओ ने भारत मे हि जन्म क्यो लिया?

क्यो किसी भी देवी -देवता को भारत के बाहर कोइ नही जानता ?

धज्जियां - वर्तमान् लोक में ही देखा जाता है , यदि कोई सरकारी उच्चाधिकारी (मन्त्री आदि ) किसी नगर में पर्यवीक्षण आदि के लिए आता है तो वहां स्थित अथवा उसके समीपस्थ निर्मित सीधे प्रामाणिक सरकारी आवास पर ठहरता है , वहां से श्रेष्ठ वाहन में बैठकर तब दौरा या अन्य कार्य करता । होता तो पूरे राष्ट्र का मन्त्री है फिर भी पूर्वनियत व्यवस्था का ही अनुपालन करता है । राजा पूरे राज्य का राजा होता है पर मिलने के लिये कोई कामना करे तो , उसे मिलता राजधानी में ही है । यद्यपि बाध्यता नहीं कोई तथापि एकलप्रकार की प्रायिकता है । इसी प्रकार , ईश्वरीय अथवा दैवीय शक्तियां होतीं हैं , वे जब इस वैश्विक धरातल पर अवतरित होती हैं तो सीधे इस विश्व पटल की प्रामाणिक आध्यात्मिक पृष्ठभूमि (भारत ) में आविर्भूत होती हैं तथा यहाँ पदार्पण करने के उपरान्त अपने आध्यात्मिक वर्चस्व से समस्त विश्व को प्रभावित करती हैं | समस्त विश्व में भारत अध्यात्म का सबसे आदर्श धरा भाग है | अफसरीपना पाकर बड़े - बड़े अफसरी भवनों में कौन नहीं आयेगा ? सांसद बनकर भी संसद में कौन नहीं बैठना चाहेगा ? और नहीं बैठेगा संसद में तो फिर कैसा सांसद ? अध्यापक होकर अपनी कक्षा में उपस्थिति न करे तो कैसा अध्यापक ? नरेन्द्र मोदी जब संसद में अपना पहला कदम रखते हैं तो इसकी धूल अपने माथे से लगाकर इसे चूमते हैं , क्योंकि उनको ज्ञात है उसका क्या महत्त्व है ; ऐसे ही भारत भूमि है, ये समस्त विश्व की धर्मसंसद है , देवता इसका महत्त्व जानते हैं , इसके प्रति तो प्रत्येक देवता यही गीत गाता है -

हम देवताओं में भी वे लोग धन्य हैं जो स्वर्ग और मोक्ष के लिए साधनभूत भारतभूमि में उत्पन्न हुए हैं-

'#गायन्ति_देवाः_किल_गीतकानि_धन्यास्तु_ये_भारतभूमिभागे | #स्वर्गापवर्गास्पदहेतुभूते_भवन्ति_भूयः_पुरुषाः_सुरत्वात् ||

देव होकर ही देवताओं की संगति की जाती है #देवो_भूत्वा_यजेत्_देवान् , (यज् देवपूजा-दान-संगतिकरणे ) भारत से बाहर कितने देवत्व धारण करने वाले मनुष्य हैं , ये सुस्पष्ट ही है | संगति का लाभ देवत्व से प्राप्त होता है , जब संगति का ही सम्यक् लाभ नहीं मिला तो उनका विवेक कहाँ से मिलेगा ? ये सब बिना परमात्मा की कृपा कर भला कहाँ सुलभ हो पाता है -

#बिनु_सतसंग_बिबेक_न_होई | #रामकृपा_बिनु_सुलभ_न_सोई

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आक्षेप - जितने भी देवी देवता देवताओ की सवारीयॉ है उनमे सिर्फ वही जानवर क्यो है जो कि भारत मे ही पाये जाते है?

एसे जानवर क्यो नही जो कि सिर्फ कुछ हि देशो मे पाये जाते है, जैसे कि कंगारु, जिराफ आदी !!

धज्जियां - देखो ! इसे ऐसे समझो - जैसे वाहन तो बहुत प्रकार के हैं , जैसे बस, ट्रेन, ट्रैक्टर , साइकिल, बाइक, ऑटो आदि आदि दुनिया भर के ! पर प्रधानमंत्री यदि किसी शहर में आयेगा तो किसी विशेष प्रयोजन मे ऑटो या रेल या फिर ट्रैक्टर में थोड़े न आयेगा ? वो आयेगा तो विशेष योग्यता वाली सरकारी गाड़ी में आयेगा, अर्थात् ऐसे स्मज्हिये कि अमेरिका का राष्ट्रपति जिस कार या वायुयान ( हैलीकॉप्टर आदि) में आ रहा है, उसका धातुज शरीर ( मैटल बॉडी ) आदि अन्य सामान्य कारों की भॉति भले ही दिखे पर वो विशेष है ।

ऐसे ही देवी - देवता हैं, तो -

वे जब आते हैं तो इसीलिये प्रधान देवता भारतीय वाहन में होते हैं , क्योंकि भारत अध्यात्म की सर्वश्रेष्ठ प्रामाणिक धरा है , ये सभी देवी-देवताओं के लिए अध्यात्म का सर्वोत्तम आदर्श है | और दूसरी बात ये है कि देवताओं की संख्या अनगिनत है , यदि कोई देवता कंगारू, जिराफ आदि आकृत्यात्मक वाहनों में हमें न ज्ञात हों तो इसका ये अर्थ नहीं कि वे हैं ही नहीं क्योंकि देवता की इच्छा पर ये निर्भर करता है कि वह किस वाहन स्वरूप (मॉडल ) को चाहता है !

शास्त्र के अनुसार देवताओं के वाहन लौकिक तिर्यक् पशु नहीं होते, वे सब द्युलोकादि के अमर्त्य देवता ही हैं , दिव्य शक्ति का वाहन भी देवता ( दिव्य शक्ति ) है, यही कारण है कि कोई अज वाहन प्रज्ज्वलित अग्नि देवता को धारण किये है , तो कोई मृग वाहन वायु देवता को , लौकिक तिर्यक् पशु में ये सामर्थ्य ही नहीं कि उन अग्नि वायु आदि को धारण कर सके , ये सभी वाहन उस -उस देवता के ही अनुरूप विशेष -विशेष दिव्य शक्तियों से युक्त होते हैं | इसी कारण, शास्त्र का तो यह सिद्धान्त है कि यह देवता ही देव वाहन रूप से समभिव्यक्त है |

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आक्षेप - सभी देवी देवता हमेशा राज घरानो मे हि जन्म क्यो लेते थे ?

क्यो किसी भी देवी देवता ने किसी गरीब या शुद्र के यहा जन्म नही लिया?

धज्जियां - देखो ! लोक में गाँव के विकास का काम करने के लिए ग्राम प्रधान का पद , जिले के लिए डी एम या विधायक का , प्रदेश के लिए मुख्यमंत्री का तथा देश का काम करने के लिए प्रधानमंत्री का पद सबसे प्रामाणिक व्यवस्था है, ऐसे ही यदि विश्व में अध्यात्म का कोई बड़ा काम करना है तो अध्यात्म की सर्वश्रेष्ठ उपाधि (ब्राह्मण ) चाहिए , प्रशासन को लेकर आपको बड़ी भूमिका निभानी है तो राजघराने से सम्बद्ध होना सबसे प्रामाणिक तरीका है | ब्राह्मण और क्षत्रिय ये दोनों शास्त्र और शस्त्र दोनों से लोक में सुव्यवस्था बनाए रखने के सर्वोत्तम साधन हैं , इसीलिये इनका प्रयोग देवी –देवताओं द्वारा होता है |

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आक्षेप - पौराणीक कथाओ मे सभी देवी देवताओ की दिनचर्या का वर्णन है जैसे कि कब पार्वती ने चंदन से स्नान किया, कब गणेश के लिये लड्डु बनाये, गणेश ने कैसे लड्डु खाये.. आदी लेकीन जैसे हि ग्रंथो कि स्क्रीप्ट खत्म हो गयी भगवानो कि दिनचर्या भी खत्म.. तो क्या बाद में सभी देवीदेवताऔ का देहांत हो गया ?? अब वो कहाँ है? उनकी औलादे कहाँ है?

धज्जियां - न जाने कहान से आप दिनचर्या पढे हो , तथापि दुर्जन तोष न्याय से समाधान करते हैं ! स्क्रिप्ट ख़त्म तो दिनचर्या ख़त्म - ये तो कोई पागल ही बोल सकता है |यदि मैं किसी को तुम्हारे बारे में बताऊँ कि ///कल तुमने मुझसे एक अमुक प्रश्न पूछा था उसका मैंने ये उत्तर दिया /// तो तुम्हारी ये जानकारी किसी को बताने से तुम मर जाओगे क्या ? चलचित्र (फिल्म) के अंत में हीरो और हीरोइन का मिलन हो जाता है और तीन घंटे की फिल्म समाप्त हो जाती है तो क्या हीरो हीरोइन मर जाते हैं ? वे तो यथास्थान ही होते हैं | कितनी घोर मूर्खता है ! चलचित्र ( फिल्म ) के उस द इंड से तो स्क्रिप्टराइटर की ये शिक्षा होती है कि इस प्रकार उक्त नायक -नायिका के सुखमय जीवन की शुरुआत हुई | एक बच्चा भी आसानी से इतनी सी सामान्य बात समझता है |

................देखो ! लोक में विद्वान क्या करता है , विद्वान जब किसी को बताता है तो सारभूत बोलता है , सटीक बोलता है , और उतना ही बोलता है जितना अगले व्यक्ति को समझाने के लिए यथायोग्य एवं पर्याप्त हो ! इसे सारं सुष्ठु मितं भाष्यम् (वाग्व्यवहार ) कहते हैं | सार का अभिप्राय है सारभूत , सुष्ठु का अभिप्राय है सर्वथोचित सुन्दर, मितम् का अभिप्राय है यथावश्यक |

....................पौराणिक कथाएँ आपको ईश्वर के चरित्र अथवा लीलाओं की सूचना इसी सारं सुष्ठु मितं से प्रदान करती है , ताकि आप उसे ग्रहण कर उसका बांकी तात्पर्य स्वतः समझ सकें | आपको उतना ही बताते हैं जितने से आपकी प्रज्ञा को समुचित मार्गदर्शन हो जाए , आप स्थालीपुलाकन्याय से उस सम्बन्ध में अन्य गुण –कर्म - स्वभाव भी समझ जाएँ कि इनका गुण कर्म स्वभाव लीला विनोद इस तरह से अभिहित है | आपकी अभिधारणा को ईश्वरीय चेतना के आलोक में सुनियोजित कर उसका उत्तम निर्माण करना मात्र पौराणिक कथाओं का प्रयोजन है | गणेश जी ने लड्डू खाया या कुंकुम-चंदनादि किसी ईश्वरीय शक्ति द्वारा स्वीकृत होने आदि की बातें अगर पुराण कहता है तो इसका अभिप्राय है कि ईश्वर का गणेश रूप अपने प्रेमी भक्तों के द्वारा भाव से प्रदत्त मोदक को ही भक्षण कर रहे हैं , जब आप उपासना करें तो उसमें उनकी प्रसन्नता की कामना लेते हुए मोदक (लड्डू ) के भोग की प्रधानता रखें |

.......................मोदक प्रतीक है मुदिता , प्रसन्नता का अथवा आनन्द का | श्री गणेश जी को मोदक देने का अर्थ है इस प्रतीक के रूप में ईश्वर के प्रति अपने अध्यात्मिक प्रेमानंद की अभिव्यक्ति करना | जब भक्त मुदित होता है तो उसका उपास्य ईश्वर भी मुदित होता है , ये उपास्य -उपासक का परस्पर आतंरिक प्रेम है | जब आप एक मोदक बनाकर ईश्वर के गणेश रूप को श्रद्धा और प्रेम से अर्पित करते हैं तो ईश्वर के प्रति इस प्रेमपूर्ण आध्यात्मिक व्यवहार से आपकी चेतना में क्रमशः सात्त्विकता आती है और आपका आध्यात्मिक विकास होता है | आपको साधना के उद्देश्य से ये श्री गणेश जी के मोदक आदि भक्षण की चर्चा पुराणादि का उद्देश्य है |

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आक्षेप - ग्रंथो के अनुसार पुराने समय मे सभी देवी देवताओ का पृथ्वी पर आना-जाना लगा रहता था। जैसे कि किसी को वरदान देने या किसी पापी का सर्वनाश करने.. लेकीन अब एसा क्या हुआ जो देवी देवताओ ने पृथ्वी पर आना बंद हि कर दिया??

धज्जियां - पुराने समय में देवी -देवता पृथ्वी पर आते थे तो तब भी उनके देवी या देवता होने का रहस्य केवल उनके अधिकारी भक्त ही जान पाते थे , सब नहीं , जैसे भगवान् कृष्ण द्वापरयुग में अवतरित हुए तो केवल उनके अधिकारी भक्तों जैसे - असित , देवल , व्यास, कुंती, विदुर आदि गिने -चुने लोग ही उनकी भगवत्ता को पहचान पाते थे अथवा केवल स्वयं श्री कृष्ण ही अपनी भगवत्ता के ज्ञाता थे , सभी नहीं |

#आहुस्त्वामृषयः_सर्वे_देवर्षिर्नारदस्तथा |

#असितो_देवलो_व्यासः_स्वयं_चैव_ब्रवीषि_मे || (-श्रीमद्भगवद्गीता १०/१३)

सौ कौरव, कर्ण , जरासंध , अश्वत्थामा , शिशुपाल आदि सहित सारा संसार उनको एक साधारण ग्वाला ही समझता था | इसीलिये तो दुर्योधन भरी राजसभा में उनको बन्दी बनाने का आदेश देता है , शिशुपाल सौ गालियाँ देता है, अश्वत्थामा उनकी आज्ञा न मानकर पांडवों के सर्वनाश का कुकृत्य करता है , आदि | ऐसे ही राम के विषय में था ऐसे ही अन्य अवतारों के विषय में है | हनुमान जी को उस समय का अज्ञानी समाज एक साधारण बन्दर समझता था, इतने देवी देवता वानर रीछ आदि रूपों में अवतरित हुए किसने पहचाना ? केवल महातपा ऋषि मुनियों आदि ने ही क्योंकि महान् आध्यात्मिक शक्तियों को जानने के लिए ज्ञाता को स्वयं भी अध्यात्म के सर्वोच्च शिखर पर होना आवश्यक है | तपः पूत , क्रान्तदर्शी ऋषिगण समाधि की अवस्था में समस्त अवतारों के मूल स्वरूप का साक्षात्कार कर फिर उनका उपदेश करते हैं | इतनी हजारों गोपियाँ पूर्वजन्म में महान् ऋषि थीं, अनेक तो देवलोक की अप्सराएं थीं , अनेक वेदमंत्रों की ऋचाएं अवतरित हुईं थी , किसने पहचाना ?

.................. यहाँ तक कि श्री भगवान् तो यहाँ तक स्पष्ट करते हैं कि लोक में जो-जो भी विभूति युक्त अर्थात् ऐश्वर्य युक्त, कान्ति युक्त और शक्ति युक्त वस्तु है, उस- उसको तू (हे अर्जुन !) मेरे तेज़ के अंश की ही अभिव्यक्ति जान -

#यद्यद्विभूतिमत्सत्वं_श्रीमदूर्जितमेव_वा ।

#तत्तदेवावगच्छ_त्वं_मम_तेजोंऽशसंभवम् || (- श्रीमद्भगवद्गीता १० /४१)

इसी प्रकार आज भी अनेक देवी -देवताओं की स्वांश आध्यात्मिक विभूतियाँ आदि प्रायः विविध प्रकार से अवतरित होकर सनातन धर्म की रक्षा , लोकालीला का सम्पादन करते हैं , पर केवल अधिकारी भक्त ही उनका गूढ़ रहस्य समझ पाते हैं , उनकी विभूतियों का दर्शन कर पाते हैं , मूढ़ नहीं | या फिर वही व्यक्ति उनका संज्ञान प्राप्त कर सकता है , जो इन ऋषियों , हम जैसे धर्मज्ञ ब्राह्मणों से ज्ञान का श्रवण करे | अज्ञानी मूढों के लिए तो श्री भगवान् स्वयं कहते हैं -

मूर्ख लोग मेरे सम्पूर्ण प्राणियों के महान् ईश्वररूप श्रेष्ठभाव को न जानते हुए मुझे मनुष्य-शरीर के आश्रित मानकर अर्थात् साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवज्ञा करते हैं -

#अवजानन्ति_मां_मूढा_मानुषीं_तनुमाश्रितम् |

#परं_भावमजानन्तो_मम_भूतमहेश्वरम् || (-श्रीमद्भगवद्गीता ९/११)

तुम्हारी भाषा में कहा जाए तो - #शौके_दीदार_गर_है_तो_नजर_पैदा_कर !

हमारी भाषा में - यथा दृष्टिः तथा सृष्टिः #दृष्टिसृष्टिवाद

...............श्रीभगवान् स्वयं कहते हैं - (हे अर्जुन !) अपनी योगमायासे छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिए यह अज्ञानी जनसमुदाय मुझ जन्मरहित अविनाशी परमेश्वरको नहीं जानता -

#नाहं_प्रकाशः_सर्वस्य_योगमायासमावृतः |

#मूढोऽयं_नाभिजानाति_लोको_मामजमव्ययम् || (-श्रीमद्भगवद्गीता ७/ २५ )

तो कौन जानता है ? तो कहा - जो उनके भक्त हैं, वे अपनी पराभक्ति के द्वारा परमात्मा को वो जो हैं , जैसे हैं ठीक वैसा तत्व से जानते हैं -

#भक्त्या_मामभिजानाति_यावान्यश्चास्मि_तत्त्वतः | (-श्रीमद्भगवद्गीता १८/५५ )

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आक्षेप - अगर हिन्दू धर्म के अनुसार एक जीवित पत्नी के रहते, दूसरा विवाह अनुचित है, तो फिर राम के पिता दशरथ ने चार विवाह किस नीति अनुसार किये थे?

धज्जियां - किसने कहा अनुचित है ? श्री याज्ञवल्क्य जी जैसे विशुद्ध ब्राह्मण की भी दो पत्नियां (मैत्रेयी और कात्यायनी ) थीं, महायोगीश्वर भगवान् श्री कृष्ण तो सोलह हजार एक सौ आठ पत्नियां थीं | एक उत्तम कृषक के पास जितनी भूमि होगी, वह उससे उतनी फसल उगाएगा , ये तो बहुत अच्छी बात है | अधिकाधिक पुत्र-पौत्रों से सुसम्पन्न होना , खूब दीर्घायु होना ये तो हमारी परम्परा में आशीर्वाद का फल है, कृषक और उसकी भूमि का जो पवित्र सम्बन्ध होता है , वही वैदिक धर्म में पति और पत्नी का होता है |

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आक्षेप - अगर शिव के पुत्र गनेश की गर्दन शिव ने काट दी, तो फिर यह कैसा भगवान है?? जो उस कटी गर्दन को उसी जगह पर क्यों नहीं जोड़ सका?? क्यों एक निरपराध जानवर (हाथी) की हत्या करके उसकी गर्दन गणेश की धढ पर लगाई? एक इंसान के बच्चे के धढ़ पर हाथी की गर्दन कैसे फिट आ गयी?

उत्तर :- आपकी यह सारी कल्पना ईश्वर को मनुष्य देह के समान तुलना करने से उपजी है | पहले आप ईश्वरीय देह की दिव्यता समझिये -

श्री ब्रह्मा जी ने ब्रह्म-संहिता में भगवान के स्वरुप की चर्चा करते हुए कहा है कि श्रीभगवान का श्री विग्रह - आनन्दमय, चिन्मय और सत्-मय होने के कारण परम उज्जवल है; जिस श्रीविग्रह के सारे अंग (अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय) समस्त इन्द्रियों की सारी वृत्तियों से संपन्न हैं और जो चिद्-अचिद् अनन्त जगत्समूह का नित्य दर्शन, पालन और नियमन करते हैं-

#अङ्गानि_यस्य_सकलेन्द्रियवृत्तिमन्ति_पश्यन्ति_पान्ति_कलयन्ति_चिरं_जगन्ति |

#आनन्दचिन्मयसदुज्ज्वलविग्रहस्य_गोविन्दमादिपुरुषं_तमहं_भजामि ||(- श्री ब्रह्मसंहिता ५/३२)

#सत्त्वादयो_न_सन्तीशे_यत्र_वै_प्राकृता_गुणाः ( श्रीविष्णुपुराणम्१/९/४४ )

अर्थात् स्पष्ट है कि उसकी तुलना मानवीय देह से कदापि नहीं हो सकती |

श्रीरामचरितमानस स्पष्ट कहती है कि ईश्वर की देह चिदानन्दमय है (यह प्रकृतिजन्य पंच महाभूतों की बनी हुई कर्म बंधनयुक्त, त्रिदेह विशिष्ट मायिक नहीं है) और (उत्पत्ति-नाश, वृद्धि-क्षय आदि) सब विकारों से रहित है, इस रहस्य को अधिकारी पुरुष ही जानते हैं।

ईश्वर ने देवता और संतों के कार्य के लिए (दिव्य) नर शरीर धारण किया है और प्राकृत (प्रकृति के तत्वों से निर्मित देह वाले, साधारण) राजाओं की तरह से कहते और करते हैं-

#चिदानन्दमय_देह_तुम्हारी। #बिगत_बिकार_जान_अधिकारी॥

#नर_तनु_धरेहु_संत_सुर_काजा। #कहहु_करहु_जस_प्राकृत_राजा॥ (- श्रीरामच०मा०, अयोध्याकाण्ड १२६/३)

ये तो मूर्खलोग ही होते हैं जो सगुन साकार ईश्वर को सामान्य मनुष्य शरीर की भांति मानकर उनकी अवज्ञा करते हैं (-श्रीमद्भगवद्गीता ९/११)

ब्राह्मण , गौ , देवताओं और सन्तों के हित के लिए मनुज अवतार लेने वाला उनका श्री विग्रह उनकी ही दिव्य इच्छा शक्ति से निर्मित होता है और माया के सत्त्वादि गुणों तथा भौतिक इन्द्रियों से परे होता है -

#बिप्र_धेनु_सुर_संत_हित_लीन्ह_मनुज_अवतार।

#निज_इच्छा_निर्मित_तनु_माया_गुन_गो_पार।। (- श्रीरामच०मा०, बालकाण्ड १९२)

शास्त्रीय दृष्टि से ईश्वरीय देह के एक एक रोम में ब्रह्माण्ड को समाने की क्षमता है , कहाँ तो आप किसी हाथी के सिर की बात कर रहे हैं //#ब्रह्माण्ड_निकाया_निर्मित_माया_रोम_रोम_प्रति_बेद_कहै (- श्रीरामच०मा०, बालकाण्ड १९२ /// #माया_गुन_ग्यानातीत_अमाना_बेद_पुरान_भनंता (-तत्रैव )//// कार्य सदैव अपने कारण में समाहित हो जाता है , ईश्वर की देह मायाशक्ति की महिमा होने से कारण समस्त कार्यात्मक प्राकृतिक तत्त्वों (तदन्तर्गत पञ्च महाभूत एवं उनसे सृष्ट समस्त पदार्थों ) की कारण स्वरूपा है |

...................अतः ईश्वर के देह को मानवीय देह की भांति समझना कूपमंडूकता है | ईश्वर की योग शक्ति से प्रकट उनके दिव्य देह में कटना , जुड़ना आदि सब घटनाएं ईश्वर की ही माया शक्ति के कारण ही परिलक्षित होते हैं | जैसे जादूगर स्वयं के ही शरीर काट कर पुनः जोड़ लेता है , ऐसे ही ईश्वर की लीला है माया उसका जादू है और वह उससे युक्त मायावी , जैसा कि वेद कहता है -

#माया_तु_प्रकृतिं_विद्धि_मायिनं_तु_महेश्वरम् (- श्वेता० उ०४/१०)

परमेश्वर एक होकर भी अपनी अलौकिक मायाशक्ति से अनेकरूपों में परिलक्षित होता है -

#इन्द्रो_मायाभिः_पुरुरूप_ईयते ” ( ऋग्वेद ६ / ४७ /१८ )

ईश्वर की लीला में सहभागी होने वाला कोई भी जीव उसके पूर्व कर्मों , संस्कारों का वैशिष्ट्य लिए होता है , तभी वह उस लीला का अंग बनताहै , कौन निरपराध है , कौन अपराधी , कौन ग्राह्य है कौन अग्राह्य , इन सब का ध्यान ईश्वर स्वयं रखता है , और तदनुसार ही अपनी लीला का सम्पादन करता है | उसकी लीला में सहभागी होने वाले प्राणी के अनन्त कर्मों का ज्ञाता , उसके भूत , भविष्य एवं वर्त्तमान की सब जिम्मेदारी स्वयं ईश्वर के ही हाथ में है | इतने अनन्त ब्रह्माण्डों में अनन्त जड़ चेतन प्राणियों का प्रतिक्षण संहार , पालन और उद्भव करने की अकेले ही जिम्मेदारी निभाने वाले परम महिमामय श्री भगवान् के लिए एक लोक विशेष के एक हाथी की जिम्मेदारी भी स्वयं की ही है, आपको उसकी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं | (Y

आक्षेप - जब भी कोइ पापी पाप फैलाता था तो उसका नाश करने के लिये खुद भागवान किसी राजा के यहा जन्म लेते थे फिर 30-35 की उम्र तक जवान होने के बाद वो पापी का नाश करते थे, ऐसा क्यों? पापी का नाश जब भगवान खुद हि कर रहे है तो 30-35 साल का इतना ज्यादा वक्त क्यो??? भगवान सिधे कुछ क्यो नही करते?? जीस प्रकार उन्होने अपने खुद के ही भक्तो का उत्तराखण्ड मे नाश किया ?

धज्जियां :- आपने शास्त्रीय अभिधारणा ठीक से प्राप्त नहीं की है , लगता है कभी विशुद्ध ब्राह्मणों के चरण रज को शिरोधार्य नहीं किया , देखिये अब समझिये इसे गहराई से -

अवतारवाद पर श्रीमद्भगवद्गीता ४/७-८ में दो प्रमुख श्लोक हैं , -

हे भारत ! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने आत्मा को सृजता हूँ -

#यदा_यदा_हि_धर्मस्य_ग्लानिर्भवति_भारत |

#अभ्युत्थानमधर्मस्य_तदात्मानं_सृजाम्यहम् ||

फिर इसके आगे कहा कि -

साधु पुरुषोंके की सब ओर से रक्षा के लिए , दुष्कृतियों के विनाशार्थ और धर्म की सम्यक् स्थापना करनेके लिए मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता हूँ -

#परित्राणाय_साधूनां_विनाशाय_च_दुष्कृताम् |

#धर्मसंस्थापनार्थाय_सम्भवामि_युगे_युगे ||

अब यहाँ दो बातें श्रीभगवान् ने अपने अवतार पर स्पष्ट की हैं -

१- यदा यदा (जब-जब ) २- युगे युगे (युग-युग में )

प्रथम श्लोक में श्री भगवान ने स्पष्ट किया कि जब भी धर्म की ग्लानि होगी तो मैं अपने आत्मा का सृजन करूंगा , किन्तु हम देखते हैं कि धर्म की हानि तो अभी भी हो रही है , जैसे आप ही कर रहे हैं ये आक्षेप खड़े करके तो भगवानका अवतार कहाँ हुआ?

तो इसका समाधान स्वयं भगवान दे रहे हैं कि - /// तदात्मानं सृजामि // तब मैं अपनी आत्मा का सृजन करता हूँ ! अब देखो -

भगवान् तो सबके आत्मा हैं , भगवान का आत्मा कौन है भला जिसको सृजित करेंगे ? ...तो इसका उत्तर है कि - #ज्ञानित्वात्मैव_मे_मतम् (श्रीमद्भगवद्गीता ७/१८) अर्थात् ज्ञानी ही श्री भगवान् का आत्मा है , इसी अपने आत्मा को सृष्ट कर देते हैं , जैसे तुम जैसे धर्ममूढों के लिए मैं सृष्ट हूँ | वह ईश्वर का आत्मा स्वयं आकर धर्म का उत्थान कर देगा !

..............आप इतिहास उठाकर देखिये , लोक में जब जब भी धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों की हानि हुई और अधर्म वृद्धि को प्राप्त हुआ , तो उस -उस देश , काल या परिस्थिति में तदनुरूप ही कोई न कोई ज्ञानी , कोई न कोई विभूति उन्हीं के मध्य में आयी और उसने उसका शमन कर दिया |

इसीलिए तो श्री भगवान् कहते हैं कि -

भावार्थ : जो-जो भी विभूतियुक्त अर्थात्‌ ऐश्वर्ययुक्त, कान्तियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, उस-उस को तू मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति जान-

#यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं_श्रीमदूर्जितमेव_वा |

#तत्तदेवावगच्छ_त्वं_मम_तेजोंऽशसम्भवम्‌ || (श्रीमद्भगवद्गीता १०/४१ )

दूसरा युगे युगे है , कि जब अन्धेरा इतना फ़ैल जाएगा कि दीपक से दूर न हो सकेगा तो सूर्य स्वयं प्रकट होगा | इसका स्पष्टीकरण शास्त्रों में प्रसिद्ध ही है कि किस युग में कौन कौन से अवतार होंगे |

................ईश्वर हर पापी को समय देते हैं कि वे सुधारे और अपने पाप का घड़ा भरने से स्वयं को रोके, संभलने का पूर्ण अवसर परमात्मा पापे को पहले ही दे देते हैं , पर पापी जब ईश्वर की प्रेरणा की अवहेलना करता है तो फिर उसका संहार ही आवश्यक होता है | हर असुर का संहार भी स्वयं नहीं करते, जो विशेष (ईश्वर के अनुग्रह के पात्र ) होते हैं वही स्वयं श्री हरि के हाथों द्वारा पराभूत होते हैं |

चींटी को मारने के लिए महाविध्वंसकारी आग्नेयास्त्र का प्रयोग थोड़े न किया जाता है भला ? इसी प्रकार किसी पापी के संहार हेतु ईश्वर का स्वयं का कोई निश्चित आयुकाल नहीं कि इसी में उसका संहार करने में सक्षम हो पायेंगे , वे तो दूधमुंहे बाल्यकाल में भी पूतना , शकटासुर जैसे असुरों को ठिकाने लगाने में परम सिद्धहस्त हैं | ये सब सामने वाले जीव के कर्मों पर निर्भर करता है कि उसका घडा कब भर रहा है |

.............उत्तराखण्ड में जो प्रलय हुआ उसमें भक्तों का नाश नहीं किया , भक्तों को तो बचा लिया उस प्रलय से भगवान ने | शिव भक्त तो उसी उत्तराखण्ड में अब भी सुरक्षित हैं , यदि भक्तों का नाश करना ही प्रलय का उद्देश्य होता तो फिर कोई भक्त कहाँ बचते ? जिनका नाश हुआ , वे सभी ईश्वर की दृष्टि में उस दण्ड के योग्य थे क्योंकि ईश्वर तो अनादिकाल से ही सब प्राणियों के अन्तः करण विराजमान हुआ उनेक जन्म जन्मान्तर के अनन्त कर्मों को जानने वाला साक्षी चैतन्य है |

#कर्माध्यक्षः_सर्वभूताधिवासः_साक्षी_चेता_केवलो_निर्गुणश्च' - (श्वे० उप० ६/११)

(#तान्यहं_वेद_सर्वाणि_न_त्वं_वेत्थ_परन्तप (श्रीमद्भगवद्गीता ४/५ )

।। जयश्री राम ।।

जाती व्यवस्था

सनातन धर्म की जाती व्यवस्था प्रारंभ से ही सबको खटकती थी इसी को अंत करने के उद्देश्य से विभिन्न मत पन्थ बने। उनके संग क्या हुआ आइये जानते हैं क्रमबद्ध तरीके से आये मत।

1. बौद्ध मत: वेदवर्णित जाती व्यवस्था के विरुद्ध आया मत जिसने पुरजोर जातिवाद का विरोध किया किन्तु अंततः स्वयं विभिन्न जातियों ओर मतों में बंट गया जैसे हीनयान बौद्ध, महायान बौद्ध , वज्रयान बौद्ध, थेरवाद बौद्ध इत्यादि।

2. जैन धर्म: जातिव्यवस्था का विरोध किन्तु अंततः और वर्तमान में दिगम्बर, श्वेताम्बर, सौंगढ़िया जैन इत्यादि। उसमें भी दिगम्बर में सिंघई, सवा सिंघई, साढ़े सिंघई जैसी जातियां बनी।

3: ईसाइयत: एक इसु मसीह द्वारा बनाया मत जोकि एक ईश्वर की संतान सबको बताता था किंतु वर्तमान में सबसे ज़्यादा बंटा कैथोलिक, प्रोटोस्टेंट, एवेंजलिस्ट, मॉरमॉन, बैप्टिस्ट, इत्यादि अनेक प्रकार की जाती मतों में।

4. मुहम्मद का इस्लाम: मुहम्मद द्वारा इस्लाम लाया गया जिसमें एक अल्लाह एक रसूल सब एक अल्लाह के बनाए आदम के पुत्र कोई जातिवाद नही किन्तु अंततः मुहम्मद के मरते ही और वर्तमान में सुन्नी, शिया, वहाबी, सल्फी, बोहरा, हनफ़ी, कादियानी, अल्वी इत्यादि और सब एक दूसरे के खून के प्यासे। कम से कम हिन्दू सभी जाति के मरने मिटने एक दूसरे को सोचते तक नहीं। 

उसमे भी सुन्नियों में पठान, सैय्यद, रंगरेज़ से लेकर विभिन्न ऊंच नीच जाती जिसमे जमकर भेदभाव होता है। 

5: सिख: गुरुनानक जी के विचारों से बना एक पन्थ जो एक सच्चे निराकार वाहेगुरु की उपासना करता और जिनके ग्रन्थ में सभी एक ईश्वर के पुत्र बिना भेद भाव जाट पात के बताए गए किन्तु वर्तमान में यह भी पापे(लाले), जट्ट, ट्रखांण(रमगरिया) और चमार में बंटा है और पंजाब साइड जाओगे तो पापे बनाम जट्ट तो खूब चलता है। इनमे भी जट्ट पापे लोग चमार और रमगरियों के यहां न विवाह करते न पानी तक पीते।

सार क्या निकला?

तुम्हारे मतों में तो जातिवाद नही था तो भी इतनी जातियों में बंट गया इससे समझ जाओ जातिवाद ईश्वर की ही एक देन उपहार है जोकि हमारे शास्त्रों में वर्णित है और हम मानते हैं और तुम्हारे शास्त्रों में वर्णित न होकर भी तुम मान ही रहे हो भले किसी अन्य तरीके से। 
सभी विचार अवश्य कीजियेगा।

जय श्रीराम

Friday, December 12, 2014

प्रश्न - राष्ट्रीय ग्रन्थ क्या होना चाहिए ? वेद या गीता ??

प्रश्न - राष्ट्रीय ग्रन्थ क्या होना चाहिए ? वेद या गीता ??

उत्तर - गीता ही राष्ट्रीय ग्रन्थ होना चाहिए , जो धूर्त आर्य समाजी लोग हिन्दू धर्म के विषय में इतने अज्ञानी हैं कि स्वयं "हिंदुत्व " इस शब्द पर ही लोगों को निराधार तथ्यों से अक्सर भ्रमित करते रहते हैं | इस प्रकार के लोग जो वेद को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की मांग कर रहे हैं , इसके पीछे इनकी अपनी सनातन धर्म विरोधी मानसिकता लादने की बहुत गहरी साजिश काम कर रही है | उन असुरों को ये तक नहीं मालूम कि वेद कहते किसे हैं | 

अनंता वै वेदाः - इस शतपथ वचन के अनुसार वेद अनन्त हैं | इन मूर्ख समाजियों का चार संहिताओं मात्र को वेद कहना अर्धकुक्कुटी न्याय जैसा है , क्योंकि संहिता , ब्राह्मण , आरण्यक और उपनिषदों से लेकर समस्त उपवेद भी वेद नाम से गृहीत होते हैं | 


वेदों को संकुचितता का जामा पहनाकर देकर अपना म्लेच्छ सिद्धान्त हिन्दू समाज पर हावी करने की साजिश रचाने वाले समाजी असुरों से सावधान रहें !!!!
हिन्दू कभी किसी फर्जी महर्षि दयानंद की नहीं अपितु वास्तविक महर्षि वेदव्यास की सुनकर चलते हैं -


एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतमेको देवो देवकीपुत्र एव |

एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा || 

इन साजिशकर्ता असुरों के विरुद्ध हर सनातनी को अपनी-अपनी भूमिका से शंखनाद करना चाहिए |

जय श्री कृष्ण !!!
|| जय श्री राम ||

 

Sunday, August 3, 2014

महान संत रविदास जी और मीरा बाई जी , सिकन्दर लोदी का एक उतम प्रसंग

महान संत रविदास जी और मीरा बाई जी , सिकन्दर लोदी का एक उतम प्रसंग..

महाराणा परिवार की महारानी मीरा को कौन नहीं जानता --? वे चित्तौड़ से चलकर काशी आयीं और रामानंद स्वामी से निवेदन किया कि वे उन्हें अपना शिष्य बना ले स्वामी जी ने वहीँ बैठे संत रविदास की ओर इशारा करते हुए कहा तुम्हारे योग्य गुरु तो संत रविदास ही है महारानी मीरा ने तुरंत ही संत रविदास की शिष्या बन गयी और वे महारानी मीरा से कृष्णा भक्त मीराबायी हो गयी इससे बड़ा समरसता का उदहारण कहाँ मिलेगा, उन्हें भगवान कृष्ण का साक्षात्कार हुआ ये संत रविदास की ही कृपा है संत रविदास चित्तौड़ किले में कई महीने रहे उसी का परिणाम है आज भी पश्चिम भारत में बड़ी संख्या में रविदासी हैं.

संत रविदास का चमत्कार बढ़ने लगा इस्लामिक शासन घबड़ा गया सिकंदरसाह लोदी ने सदन कसाई को संत रविदास को मुसलमान बनाने के लिए भेजा वह जनता था की यदि रविदास इस्लाम स्वीकार लेते हैं तो भारत में बहुत बड़ी संख्या में इस्लाम मतावलंबी हो जायेगे लेकिन उसकी सोच धरी की धरी रह गयी स्वयं सदन कसाई शास्त्रार्थ में पराजित हो कोई उत्तर न दे सके और उनकी भक्ति से प्रभावित होकर उनका भक्त यानी वैष्णव (हिन्दू) हो गया उसका नाम सदन कसाई से रामदास हो गया, दोनों संत मिलकर हिन्दू धर्म के प्रचार में लग गए जिसके फलस्वरूप सिकंदर लोदी क्रोधित होकर इनके अनुयायियों को चमार यानी चंडाल घोषित कर दिया ( तब से इस समाज के लोग अपने को चमार कहने लगे) उनसे कारावास में खाल खिचवाने, खाल-चमड़ा पीटने, जुती बनाने इत्यादि काम जबरदस्ती कराया गया उन्हें मुसलमान बनाने के लिए बहुत शारीरिक कष्ट दिए गए लेकिन उन्होंने कहा -----

''वेद धर्म सबसे बड़ा, अनुपम सच्चा ज्ञान,

फिर मै क्यों छोडू इसे, पढ़ लू झूठ कुरान.

वेद धर्म छोडू नहीं, कोसिस करो हज़ार,

तिल-तिल काटो चाहि, गोदो अंग कटार'' (रैदास रामायण)

यातनाये सहने के पश्चात् भी वे अपने वैदिक धर्म पर अडिग रहे, और अपने अनुयायियों को बिधर्मी होने से बचा लिया, ऐसे थे हमारे महान संत रविदास जिन्होंने धर्म, देश रक्षार्थ सारा जीवन लगा दिया इनकी मृत्यु चैत्र शुक्ल चतुर्दसी विक्रम सम्बत 1584 रविवार के दिन चित्तौड़ में हुआ, वे आज हमारे बीच नहीं है उनकी स्मृति आज भी हमें उनके आदर्शो पर चलने हेतु प्रेरित करती है आज भी उनका जीवन हमारे समाज के लिए प्रासंगिक है, हमें यह ध्यान रखना होगा की आज के छह सौ वर्ष पहले चमार जाती थी ही नहीं, इस समाज ने पद्दलित होना स्वीकार किया, धर्म बचाने हेतु सुवर पलना स्वीकार किया, लेकिन बिधर्मी होना स्वीकार नहीं किया आज भी यह समाज हिन्दू धर्म का आधार बनकर खड़ा है, हिन्दू समाज में छुवा-छूत, भेद-भाव, उंच-नीच का भाव था ही नहीं ये सब कुरीतियाँ इस्लामिक काल की देन है, हमें इस चुनौती को स्वीकार कर इसे समूल नष्ट करना होगा यही संत रविदास के प्रति सच्ची भक्ति होगी.

Sunday, July 20, 2014

वेद व्यास जी वर्णसंकर नहीं


वेद व्यास जी पर वर्णसंकर आक्षेप का जबाब (वेद व्यास जी वर्णसंकर नहीं)
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अक्सर मैं देखता आया हूँ हमारे परम पूज्य वेद व्यास जी पर आक्षेप किया जाता है कि वो वर्णसंकर थे? लेकिन वास्तविकता कितनी अलग है देखिये?

वर्णव्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण दम्पति की संतान ब्राह्मण कहलाती है, क्षत्रिय दम्पति की संतान क्षत्रिय कहलाती है इसी प्रकार वैश्य और शुद्र दम्पति की संतान क्रमशः वैश्य और शुद्र कहलाती है इसके अलावा एक वर्ण के व्यक्ति द्वारा अन्य किसी भी वर्ण (अपने वर्ण से भिन्न) या जाती की स्त्री से जन्मी संतान वर्णसंकर कहलाती है जैसा कि आक्षेप महर्षि वेदव्यास जी पर लगाया गया है!! देखें-

सवर्णेभ्यः सवर्णासु जायन्ते हि सजातयः। (-याज्ञवल्क्य स्मृति आचाराध्याय 4/90)

अर्थ- सवर्ण(पुरुषोँ) द्वारा प्रशस्त (ब्राह्म आदि) विवाहोँ से ग्रहण की गयी सवर्णा (समान वर्ण) की स्त्रियोँ मेँ उत्पन्न पुत्र सजाति (उसी वर्ण के ) होते हैँ |

वेद व्यास जी पर शंका
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ये सर्वविदित है कि वेदव्यास की के पिता मुनि पराशर एक विशुद्ध ब्राह्मण थे! अतः अब अज्ञानी शंका उठाते हैं उनकी माता सत्यवती जिन्हें मत्स्यगंधा भी कहते हैं उन पर तो उनकी शंका के निवारण हेतु पहले सत्यवती जी कौन थी यह जानना आवश्यक है! 

सत्यवती महाभारत की एक महत्वपूर्ण पात्र है। उसका विवाह हस्तिनापुरनरेश शान्तनु से हुआ। उसका मूल नाम 'मत्स्यगंधा' था। वह ब्रह्मा के शाप से मत्स्यभाव को प्राप्त हुई "अद्रिका" नाम की अप्सरा के गर्भ से उपरिचर वसु द्वारा उत्पन्न एक कन्या थी। इसका ही नाम बाद में सत्यवती हुआ। (महाभारत आदिपर्व)
अब विचारणीय तथ्य है कि -
मत्स्यगंधा (सत्यवती) अप्सरा की पुत्री थीं चूँकि अप्सरा देवकन्या होती है और देवों में कोई भी वर्ण व्यवस्था नहीं होती अतः देखिये इस विषय में आद्य जगद्गुरु श्री शंकराचार्य जी अपने गीता भाष्य (अध्याय ४.१३) में कहते हैं -

मानुष एव लोके वर्णाश्रमादिकर्माधिकारः । नान्येषु लोकेष्विति नियमः किं निमित्तः ? इति । 

अथवा वर्णाश्रमादिप्रविभागोपेता मनुष्या मम वर्त्मानुवर्तन्ते सर्वश [गीता ४.११] इत्युक्तं कस्मात्पुनः कारणान्नियमेन तवैव वर्त्मानुवर्तन्ते, नान्यस्य किम् ? उच्यते!!

यानी इससे सिद्ध होता है कि देवताओं में कोई वर्ण व्यवस्था नहीं होती |
अब मनुस्मृति की आज्ञा देखिये-
पुमानपुंसोऽधिके शुक्रे स्त्रीभवत्यधिके स्त्रियाः ।
समेऽपुमान्पुंस्त्रियौ वा क्षीणेऽल्पे च विपर्ययः।। (३.४९)

अर्थात्- पुरुष के वीर्य अधिक हो तो पुत्र और स्त्री (माता) का रज अधिक हो तो कन्या होती है और दोनोँ का बराबर हो तो नपुंसक या पुत्र पुत्री दोनोँ पैदा होँ व दोनोँ का न्यून होवै तो गर्भ नहीँ रहता !

अतः कन्या मेँ मातृप्रधानता होती है और पुत्र मेँ पितृप्रधानता अर्थात् कन्या मातृअंश का प्रबल उत्कर्ष रहता है किँतु पुत्र मेँ पितृ अंश का !

इसके अनुसार मत्स्यगंधा अपनी मातृ अंशको ग्रहण करेंगी इस प्रकार वो भी देव कन्या ही हुयीं!!

अब बात आती है वेदव्यास जी की चूँकि उनकी माता देवकन्या हुयीं और उनके पिता विशुद्ध ब्राह्मण और माता देवकन्या होने के कारण वर्ण से मुक्त होंगी फिर मनुस्मृति के उसी श्लोक के अनुसार वेद व्यास जी में पितृ अंश प्रबल होगा अतः वे विशुद्ध ब्राह्मण ही होंगे!!!!

इस प्रकार महर्षि वेदव्यास विशुद्ध ब्राह्मण स्पष्ट हैं ||

||जय श्री राम ||